अध्याय-सात
7. वोटरषिप प्रस्ताव का अर्थषास्त्रीय परीक्षण
1. मुद्रा नीति के इतिहास की झलक
2. मुद्रा के सम्बन्ध में अर्थषास्त्रियों के कथनव पुर्नमूल्यांकन
3. स्वर्णमान के विशय में अर्थषास्त्रियों के कथन
4. मुद्रा प्रसार व संकुचन के विशय में अर्थ षास्त्रियों
के कथन व पुर्नमूल्यांकन
5. लोकवित्ता पर अर्थषास्त्रियों के कथन व उनकी व्याख्या
6. करारोपण पर अर्थषास्त्रियों के कथन व उनकी व्याख्या
वोटरषिप प्रस्ताव का अर्थषास्त्रीय परीक्षण
1 मुद्रा नीति के इतिहास की झलक -
1861 से पूर्व नोट निर्गमन का कार्य मद्रास, कलकत्ताा एवं बम्बई प्रेसीडेंसीओं द्वारा होता था। 1861 के बाद से निर्गमन का कार्य भारत सरकार द्वारा प्रारंभ हुआ। 1920 में आनुपातिक निधि प्रणाली अपनाया गया। 1935 में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई और धातु कोश रखकर नोट निर्गमन का कार्य प्रारंभ किया। 1956 में न्यूनतम कोश प्रणाली अपनाया गया।
2 मुद्रा के विशय में अर्थषास्त्रियों के कथन व पुनर्मुल्यांकन -
(i) ''प्रत्येक व्यक्ति मुद्रा को जानता है, परन्तु कभी नपे-तुले षब्दोें में परिभाशा नही दे पाता।'' ............रॉबर्टसन
(ii) ''यद्यपि मुद्रा का हमारे जीवन में अत्यधिक महत्व है, तथापि इसको निष्चित तथा विधिवत रूप में वर्णित करना, कि यह क्या है; अत्यंत कठिन है।''
...........प्रो. आर.पी. भट्ट
(iii) ''मुद्रा के दो पहलू होते हैं। प्रथम, यह हिसाब की इकाई होती है, दूसरा, यह विधिग्राह्य होती है।'' ............प्रो. हाट्रे
(iv) ''मुद्रा हमारी अर्थव्यवस्था का हृदय नहीं है, तो वह हृदय का रक्तप्रवाह अवष्य है।'' .........पॉल ट्रेस्कॉट
(v) ''मुद्रा वह धूरी है, जिसके चारों ओर अर्थविज्ञान चक्कर लगाता है।'' ....मार्षल
(vi) ''मुद्रा मानव के सभी आविश्कारों में एक अत्यधिक आधारभूत आविश्कार है। ज्ञान की प्रत्येक षाखा के अपने मूल आविश्कार हैं; जैसे यंत्र कला में-चक्र, विज्ञान में-अग्नि, राजनीतिषास्त्र में-वोट। इसी प्रकार अर्थषास्त्र एवं मनुश्य के सामाजिक जीवन के व्यापारिक पक्ष में मुद्रा एक आवष्यक आविश्कार है। जिस पर षेश बातें आधारित हैं।''
(vii) ''मुद्रा एक अच्छा सेवक लेकिन बुरा स्वामी है। ............रॉबर्टसन
(viii) ''मुद्रा एक बहुमूल्य लेकिन भयावह आविश्कार है।''............रॉबर्टसन
(ix) ''मुद्रा की षैतानी ने अब जीवन धारण कर लिया है। किसी भी धर्म एवं दर्षन में अब इतनी षक्ति नहीं है कि उसे बहिश्कृत कर सके। ...रस्किन
(x) मुद्रा के विशय में प्रमुख याचिकाकर्ता भरतगांधी का मत-
- ''मुद्रा बिजली के इंवर्टर की तरह है। जिस प्रकार इंवर्टर बिजली का भण्डारण कर लेता है, वैसे ही मुद्रा दूसरों के परिश्रम का भण्डारण कर लेती है।''
- ''मुद्रा रखकर वही लाभ उठाया जा सकता है, जो लाभ इतिहास में अत्याचारी सामंत लोग बाड़े में दासों को रखकर उठाते थे। यानी मुद्रा की ताकत से अपने हिस्से का परिश्रम किसी अन्य नागरिक से कराया जा सकता है। यह मुद्रा कामचोर लोगों के लिए दोहरा फायदा देती है। एक तो दास बाड़े की देखरेख से बचत, दूसरे दास बाड़े के सारे फायदे उपलब्ध।''
- ''बैरोमीटर जिस प्रकार हवा का दबाव नापता है। मुद्रा उसी प्रकार किसी सामान या सेवा की सामाजिक उपयोगिता व मांग रूपी दबाव मापती है। जिसकी मांग ज्यादा, उसकी कीमत की मौद्रिक इकाई ज्यादा।''
(xi) अर्थषास्त्रियों के कथन के निश्कर्श-
अर्थषास्त्रियों की मुद्रा के बारे में परिभाशा सिध्द करती है कि-
n मुद्रा एक हथियार है, इसका उपयोग सुरक्षा एवं नरसंहार दोनों में किया जा सकता है।
n मुद्रा आर्थिक रूप से उच्च वर्गीय षक्तियों को षासन की षक्ति देती है, जबकि निम्न-मध्य वर्ग को आर्थिक दासतां की तरफ धकेलती है।
n मुद्रा की परिभाशा एवं कार्य-प्रभाव के बारे में अभी तक अंतिम फैसला नहीं हुआ है, इसके उद्विकसित होने की संभावनाएं अभी बाकी हैं।
n मुद्रा भगवान जैसी रहस्यमय चीज है, जिसे ठीक-ठीक समझ पाना एवं उसे परिभाशित कर पाना अर्थषास्त्रियों के वष की भी बात नहीं है।
n अर्थषास्त्रियों ने मुद्रा के केन्द्रीकरण एवं मुद्रा के प्रसार दोनों को समाज हंता कृत्य बताया है। मुद्रा के केन्द्रीकरण से निम्न मध्यम-वर्ग की तकलीफें बढ़ जाती हैं। इसलिए सरकार के पास दो ही विकल्प रह जाते हैं। या तो सरकार संग्रही लोगों को अनुषासित करके संग्रह समाप्त करे, या फिर निम्न-मध्य वर्ग के लोगों की भी मुद्रा छपाई करने में मदद करे। निम्न मध्य वर्ग की अर्थव्यवस्था जब मुद्रा संकोच से जूझ रही होती है, तो ठीक इसी समय उच्च वर्ग की अर्थव्यवस्था मुद्रा प्रसार के दुर्गुण दिखा रही होती है। उनके लिए मुद्रा कीमती नहीं रह जाती, इसलिए किसी भी चीज की खरीदारी में मनमानी पैसे फेंकने की प्रवृत्तिा बढ़ जाती है। अगर निम्न वर्ग की रिजर्व बैंक अलग बन जाये तो वह ऐसी दषा में मुद्रा प्रसार करके सकल घरेलू अर्थव्यवस्था को संतुलन में ला सकती है। अत: एक रिजर्व बैंक द्वारा दोनों वर्गों के बीच मौद्रिक न्याय कायम रख पाना संभव ही नहीं है।
n अगर उच्च वर्ग आर्थिकर् कत्तव्य से विमुख हो जाए व सरकार का निर्देष मानने से इनकार कर दे, सरकार की प्रभुसत्ताा की अवहेलना करें तो सरकार का यहर् कत्ताव्य बनता है कि निम्न मध्यम वर्ग से इकतरफा अपने निर्देष मनवाते रहने से बचें । अगर सरकार वितरण का न्याय नहीं कर सकती तो उच्च वर्ग एवं निम्न-मध्य वर्ग के बीच से सरकार को हट जाना चाहिए। दोनों वर्गों को प्राकृतिक न्याय के अखाड़े में छोड़ देना चाहिए। सेना एवं पुलिस पर सरकार को अपना नियंत्रण कुछ अवधि के लिए उठा लेना चाहिए। इससे उच्च वर्ग को यह पता चल सकेगा कि उनकी सम्पन्नता राज्य की देन है, या उनकी अपनी प्रतिभा की?
3. स्वर्णमान के विशय में अर्थषास्त्रियों के कथन-
(i) ''स्वर्णमान समय-समय पर एक देष से दूसरे देष में मंदी तथा अभिवृध्दि के भयानक रोगों को फैलाने का उत्ताम साधन है।'' ...........प्रो. विलियम्स
(ii) ''स्वर्णमान एक ऐसी नौका के समान है जो षांत समुद्र पर तो चल सकती है, लेकिन तूफान में टूट जाती है।'' ..........जार्ज हॉम
(iii) ''स्वर्णमान अच्छे दिनों का मित्र है।'' ............रॉबर्टसन
(iv) ''स्वर्णमान एकर् ईश्यालु देवता है, यह तभी कार्य करता है, जब एक मात्र इसी की साधना की जाती है।'' ...क्राउथर
(v) ''स्वर्णमान के नियम कीमत स्तर की गम्भीरता बनाये रखने के लिए नहीं है, अपितु इसके अंतर्गत इस बात की व्यवस्था रहती है कि प्रत्येक देष का कीमत स्तर समान रूप से नषे में चूर रहेगा।''
4. मुद्रा प्रसार व संकुचन के विशय में अर्थषास्त्रियों के कथन-
(i) ''मुद्रा की निष्चित इकाई बार-बार जितने हाथों में विनियम क्रियायें सम्पन्न करती है वह मुद्रा की चलन गति कहलाती है'' ............रॉबर्टसन
(ii) ''बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की स्थिति में मुद्रा की मात्रा बढ़ाने से कीमतें बढ़ने का सामान्यत: कोई भय नहीं होता। ऐसी दषा में मौद्रिक विस्तार की नीति अपनाई जा सकती है।'' .....कीन्स
(iii) ''मुद्रा प्रसार अनुचित है, मुद्रा संकुचन अव्यवहारिक है; यह ऐसा इंजन है जो बिल्कुल अंधा होकर धन का वितरण करता है। यह किसी व्यक्ति के गुणों व अवगुणों की ओर ध्यान नहीं देता।'' .....कीन्स
(iv) ''मुद्रास्फीति की तुलना एक डाकू से की जा सकती है। दोनों ही कोई न कोई वस्तुएं छीनते हैं। अंतर यह है कि डाकू दिखाई पड़ता है, जबकि मुद्रा प्रसार अदृष्य होता है। डाकू एक समय में कुछ लोगों को ही लूटता है जबकि मुद्रा प्रसार समस्त राश्ट्र को लूटता है। डाकू पर मुकदमा चलाया जा सकता है जबकि मुद्रा प्रसार वैधानिक होता है।''
........प्रो0 वकील
(v) ''यदि विकल्प मुद्रा प्रसार एवं मुद्रा संकुचन के मध्य हो, तो संभवत: अधिकांष व्यक्ति मुद्रा प्रसार को प्राथमिकता देंगे। जहां तक उत्पादन एवं रोजगार का संबंध है, मुद्रा संकुचन की तुलना में मुद्रा प्रसार श्रेश्ठ है।'' .....कुरिहारा (vi) ''मुद्रा प्रसार अन्यायपूर्ण है, और मुद्रा संकुचन अनुपयुक्त है। परन्तु इन दोनों में मुद्रा संकुचन अधिक बुरा है।'' .....कीन्स
(vii) ''यदि मांग में वृध्दि के साथ-साथ उत्पादन में भी वृध्दि होती है, तो अतिरिक्त मांग की स्थिति कीमतों पर अधिक प्रभाव नहीं डालेगी।'' .....कीन्स
(viii) मुद्रा प्रसार व संकुचन के विशय में प्रमुख याचिकाकर्ता का संषोधन-
वोटरषिप प्रस्ताव के माध्यम से आर्थिक लोकतंत्र अपना लिया जाये तो प्रो. वकील की उक्त परिभाशा और मुद्रा प्रसार के बारे में किया गया मूल्यांकन गलत साबित हो सकता है। कुछ दृश्टांत देखें -
पहला उदाहरण :-
विलियम के पास 100 रूपया है, सईद के पास 75 रूपया है, गोर्वाचोव के पास 40 रूपया है, वांग्यू के पास 5 रूपया है और राम प्रसाद के पास 10 रूपया है। और ये सभी एक ही अर्थव्यवस्था के नागरिक हैं। इस अर्थव्यवस्था की संचालक सरकार ने 100 रूपये का मुद्रा निर्गमन करके अपने सभी पांचों मतदाताओं में बराबर-बराबर 20 रूपया वितरित कर दिया। इस षासकीय कदम का सभी लोगों पर प्रभावों का आकलन करें-
कुल क्रयषक्ति =100+(75+40+25+10)=250 रूपया
सम वितरण से मुद्रा प्रसार की समान मिली रकम = मुद्रा प्रसार का प्रतिषत = 40 प्रतिषत
N A B C D E F
विलियम 100 120 +20 34.2857 85.7143 -14.2857
सईद 75 95 +20 27.1428 67.8572 -07.1428
गोर्बाचोव 40 60 +20 17.1428 42.8572 +02.8572
वांग्यू 25 45 +20 12.8571 32.1429 +07.1429
रामप्रसाद 10 30 +20 08.5714 21.4286 +11.4286
यहां N का आषय नामों से है, A का आषय मुद्रा प्रसार से पूर्व धनराषि से है, B मुद्रा प्रसार के बाद की धनराषि है, C हर व्यक्ति को मिला आभासी लाभ प्रदर्षित करता है, D मुद्रा प्रसार के बाद हाथ लगा प्रसार का हिस्सा है, E प्रसार बाद प्राप्त रकम B से प्रसार का हिस्सा D निकालने के बाद बची राषि है, F हर व्यक्ति को प्राप्त नफा-नुकसान रूपये में बताता है, जो मुद्रा प्रसार के बाद वास्तव में हाथ लगी राषि E में से मुद्रा प्रसार से पूर्व हर व्यक्ति के पास मौजूद राषि A को घटाने से प्राप्त होता है।
निश्कर्श - मुद्रा प्रसार का प्रभाव -
(i) सब पर समान रूप से नहीं पड़ता ।
(ii) इसका दुश्प्रभाव संग्रहकर्ता के संग्रह के अनुपात में पड़ता है ।
(iii) यह कुछ लोगों के लिए दान मिलने जैसा होता है और कुछ लोगों के लिए कर जैसा ।
(iv) इसका अच्छा या बुरा प्रभाव इस पर निर्भर होता है कि प्रसारित मुद्रा किसके पास किस अनुपात में जाती है ।
दूसरा उदाहरण :-
किसी घर में दूध का कुल उत्पादन 20 लीटर है, परिवार में सदस्यों की संख्या 10 है ।पीने के लिए दूध का वितरण इस प्रकार है :-
क्लिंटन 8.00 लीटर फंग 0.75 लीटर
टॉमस 5.00 लीटर ट्रेटास्की 0.50 लीटर
अहमद 2.50 लीटर महमूद 0.40 लीटर
लामा 1.50 लीटर डायना 0.25 लीटर
यांग 1.00 लीटर विष्वनाथ 0.10 लीटर
घर में दो बच्चे और पैदा हो गये। क्लिंटन 8 लीटर दूध पीते थे, उनसे थोड़ा दूध नवजात षिषुओं को देने के लिए कहा गया। लेकिन वह नही माने। नवजात बच्चों को दूध देने के लिए जब परिवार का कोई सदस्य अपने हिस्से में कटौती करने को तैयार नहीं हुआ तो परिवार प्रबंधक ने दूध में परिवार के सदस्यों की संख्या के बराबर यानी 12 लीटर पानी (60 प्रतिषत) यह सोंच कर मिला दिया कि दूध की कम से कम 0.50 लीटर मात्रा एक बच्चे के जीवन जीने के लिए आवष्यक है। अब दूध की कुल मात्रा-20+12 = 32 लीटर हो गई। और परिवार के सदस्यों की संख्या हो गई 10 + 2 = 12 । बढ़े हुए दूध की 12 लीटर मात्रा को परिवार प्रबंधक ने परिवार के सभी सदस्यों में बराबर-बराबर बाँट दिया। अब इन 12 सदस्यों पर दूध में मिले पानी ( मुद्रा प्रसार) के प्रभाव की गणना कीजिये ।
नाम प्रसार मिलावटी दूध प्रसार का असली दूध असली
पूर्व मात्रा की मात्रा प्रभाव (प्रसार के बाद) प्रभाव
N A B C D E F
क्लिंटन 8.00 9.00 +1 3.375 5.625 -2.375
टॉम्स 5.00 6.00 +1 2.250 3.600 -1.400
अहमद 2.50 3.50 +1 1.312 2.187 -0.312
लामा 1.50 2.50 +1 0.937 1.562 +0.062
यांग 1.00 2.00 +1 0.750 1.250 +0.250
फंग 0.75 1.75 +1 0.656 1.093 +0.343
ट्रेटास्की 0.50 1.50 +1 0.562 0.937 +0.437
महमूद 0.40 1.40 +1 0.525 0.875 +0.475
डायना 0.25 1.25 +1 0.468 0.781 +0.531
विष्वनाथ 0.10 0.10 +1 0.381 0.718 +0.618 बच्चा 0.00 1.00 +1 0.375 0.625 +0.625
बच्ची 0.00 1.00 +1 0.375 0.625 +0.625
न्यूनतम लोगों में असंतोश अधिक लोगों का लाभ
(यहां NABCDEF का आशय वही है, जो पहले उदाहरण में दिया गया है)
यहॉ N परिवार के सदस्यों के नाम हैं, A निजी दूध की मात्रा है, B पानी मिलाने के बाद मिले दूध की मात्रा है। C मिलावट के बाद बढे दूध की मात्रा है, यानी D=B*12/32 बढे दूध में पानी की, मात्रा है, E=B-D यानी मिलावट के बाद बढ़े दूध में असली दूध की मात्रा है,
F=E-A यानी मिलावट के पहले और बाद में असली दूध की मात्रा में आया अन्तर है।
निश्कर्श -
यदि-
(i) मुद्रा प्रसार किया जाये, और मुद्रा की उतनी मात्रा प्रसरित किया जाये, जितनी जीवनयापन की न्युनतम क्रयषक्ति का जनसंख्या में गुणनफल करने से आता है।
(ii) प्रसरित मात्रा को सभी में समान वितरण कर दिया जाये,
(iii) सुविधा देकर कल्याण करने पर अनुषासन रखा जाये,
(iv) बेरोजगारी व्याप्त हो,
(v) मषीनी उत्पादन व्यवस्था प्रचलन में हो,
(vi) राजनैतिक लोकतंत्र प्रचलन में हो,
तो-
(i) मुद्रा प्रसार से धनिक वर्ग को लाभ होता है, कीन्स का यह निश्कर्श उक्त तकनीकी से उलट जाती है और मुद्रा प्रसार जनसामान्य को लाभप्रद हो जाता है।
(ii) उक्त तकनीकी से सब पर समान करारोपण नहीं होता, अपितु अर्थ का न्यायिक वितरण होता है। अत: यह तकनीकी प्रो. जे.सी.एन. वकील के निश्कर्श को बदल देती है।
(iii) गरीबी-अषिक्षा-बीमारी-जनसंख्या वृध्दि की समस्या से निपटा जा सकता है।
(iv) देष के आर्थिक फैसलों में जनभागीदारी बढ़ाई जा सकती है।
(v) न्यूनतम राजनैतिक अस्थिरता से अधिकतम आर्थिक संवृध्दि हासिल हो सकती है।
(vi) प्रसार पर कृत्रिम सम्पन्नता का आरोप लागू नहीं होगा, कारण निम्नवत है - उत्पादन मषीन आधारित हो गया है, मांग बढ़ने पर मषीनी उत्पादन बढ़ेगा, श्रम आधारित उत्पादन घटेगा।
(vii) बेरोजगारी की उपस्थिति के कारण बेरोजगारों की क्रयषक्ति बढ़ते ही उनकी मानसिक कार्य क्षमता निश्क्रियता से मुक्त हो जाएगी और उत्पादन बढ़ाने लगेगी।
(viii) उत्पादन एवं मांग की सतत वृध्दि के कारण प्रसार से आई सम्पन्नता स्थायी होगी।
(ix) कीमतें प्रसार के कारण नहीं बढ़ेगी ।
(x) यदि पूर्ण रोजगार की दषा विद्यमान है, तो मांग बढ़ने से उत्पादन नहीं बढ़ेगा। परिणाम स्वरूप पूर्ण स्फीति की दषा पैदा होगी ।
स्पश्टीकरण -
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि उत्पादन के दो साधन होते हैं-पहला मैनुअल, दूसरा मैकेनिकल। कीन्स की बात तभी सत्य हो सकती है, जब मषीनों का पूर्ण संभव उपयोग का स्तर भी प्राप्त हो गया हो।
लागत प्रेरित स्फीति दो प्रकार से पैदा होती है। लाभ प्रेरित स्फीति- ब्याज दर में वृध्दि, लाभांष आदि में वृध्दि; जिसका लाभ पूंजीपति को होता है, यह अलोकतांत्रिक स्फीति होती है। मजदूरी प्रेरित स्फीति- मजदूरी की दर बढ़ने से लाभ मजदूरों का होता है, अत: यह लोकतांत्रिक स्फीति है। मजदूरी प्रेरित स्फीति लाभांष प्रेरित स्फीति से बेहतर है। वोटरषिप प्रेरित स्फीति दोनों से बेहतर है। कारण निम्नवत हैं-
(i) मजदूरों के बीच आपस में प्रतिस्पर्धा के कारण सभी क्षेत्रों, सभी संस्थानों में मजदूरी वृध्दि नहीं हो पाती। इसलिए एक क्षेत्र के मजदूर की मजदूरी में वृध्दि का भार दूसरे -क्षेत्र, दूसर देष, दूसरे संस्थान के मजदूरों के कंधों पर स्थानांतरित हो जाता है। इस तरह मजदूर ही मजदूर के षोशण का कारण बन जाता है। वोटरषिप के समान वितरण के सिध्दांत के कारण इस कमी से सुरक्षा मिल जाएगी। मजदूर अपने साथ आर्थिक बलात्कार से मना कर सकेगा।
(ii) मजदूरी वृध्दि से सकल घरेलू उत्पादन बढ़ने की गारंटी नहीं है किन्तु वोटरषिप से गारंटी है। इसका पहला कारण यह है कि पेट की चिंता से आजाद लोगों की दिमागी ताकत हरकत में आ जाएगी, फलस्वरूप नयी खोज एवं नये आविश्कार सामने आयेंगे, उनमें कई उत्पादन बढ़ाने वाली खोजें भी होंगी। दूसरा कारण यह है कि क्रयषक्ति हर वक्त उपलब्ध रहने के कारण मंदीजन्य उत्पादन ह्रास नहीं होगा।
5. लोकवित्ता पर अर्थषास्त्रियों के कथन व उनकी व्याख्या-
यह कि वोटरषिप का मामला न तो अर्थषास्त्र का विशय है, न राजनीति षास्त्र का विशय है अपितु लोकवित्ता विशय है । लोकवित्ता की कुछ परिभाशाएँ देखिए -
(i) ''लोकवित्ता उन विशयों में से एक है, जो अर्थषास्त्र एवं राजनीति षास्त्र की विभाजन रेखा पर स्थित है ।'' .....डाल्टन
(ii) प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी द्वारा डाल्टन की व्याख्या-
बाजारू अर्थषास्त्र केवल उनको सम्मान देता है, जिसकी जेब में पैसा है। इसकी कमी यह है कि वह यह नहीं देखता कि पैसा किस प्रकार उसके पास आया। राजनीति षास्त्र उनका सम्मान करता है जो जीवित हैं। कमी यह है कि वह यह नहीं देखता कि वह जीवित रहने लायक हैं या नहीं। लोक वित्ता का काम दोनों के बीच समन्वय करने का होता है। जिसकी जेब में पैसा नहीं है और समाज के लिए वे उपयोगी हैं, उनके सम्मान सहित जीने का प्रबंध किया जाये और जिन लोगों को आपराधिक या कानूनी ताकत से पैसा मिल गया है, उनके सम्मान और सुविधाओं की कटौती करके उसे अन्यत्र स्थानांतरित किया जाये।
(iii) ''राज्य को चाहिए कि आर्थिक विशमता को कम करने के लिए वह राजकोशीय नीति का खुलकर प्रयोग करे।'' .......प्रो0 वैगनर, एजवर्थ पीगू
(iv) ''वित्ता केवल अंकगणित नहीं है, वित्ता एक महान नीति है। बिना अच्छे वित्ता के अच्छी सरकार संभव नहीं है और बिना अच्छी सरकार के अच्छा वित्ता संभव नहीं है।'' ....विल्सन
(v) ''व्यक्ति यह कहता है कि मैं इतना व्यय कर सकता हूं, जब कि वित्तामंत्री यह कहता है कि मुझे इतनी आय प्राप्त करनी है।'' ..............बेस्टविल
(vi) प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी द्वारा बेस्टबिल की व्याख्या-
व्यक्ति के पारिवारिक अर्थव्यवस्था का आदर्ष होता है-'तेते पाँव पसारिये, जेती लम्बी सौर' जबकि सरकार की घरेलू अर्थव्यवस्था का आदर्ष होता है-'जेती सौर पसारिये, तेते लम्बे पाँव'। फिर भी यह बात तभी सत्य है जब सरकार का अर्थ विष्व की सरकार हा,े एवं व्यक्ति का अर्थ आर्थिक रूप से स्वार्थी व्यक्ति हो। अगर परमार्थी व्यक्ति को देखेंगे और क्षेत्रीय सरकार को देखेंगे तो उक्त आदर्ष उनके व्यवहार का हिस्सा नहीं दिखेंगे ।
(vii) ''व्यक्ति अपनी आय का एक भाग व्यक्तिगत संतुश्टि में और दूसरा भाग सामूहिक संतुश्टि में खर्च करता है।अत: राज्य व्यक्तिगत आय के दूसरे भाग में ही हेरफेर कर सकता है।''
(viii) प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी की व्याख्या-
जिस तरह व्यक्ति व्यय के उक्त दो मदों में खर्च करता है, उसी तरह राज्य को भी व्यक्तिगत एवं सामूहिक; यानी दो मदों में व्यय करना चाहिए। इन मदों का अनुपात तय करना चाहिए। सरकार के व्यक्तिगत खाते को व्यक्ति का सामूहिक खाता कहा जाता है। इसीलिए जब सार्वजनिक निर्माण एवं दीर्घकालिक उत्पादक कार्यों पर सरकार व्यय करती है तो इस व्यय को व्यक्ति के सामूहिक संतुश्टि में किया गया व्यय माना जाता है। इसी व्यय को सरकार की नजर में सरकार की व्यक्तिगत संतुश्टि में किया गया व्यय माना जाए तो कोई तथ्यात्मक त्रुटि नहीं होगी, क्योंकि यह व्यक्ति के लिए सामूहिक व्यय है। जब व्यक्ति सामूहिक संतुश्टि में भी व्यय करता है, तो सरकार को भी केवल व्यक्तिगत संतुश्टि में ही व्यय करके हाथ पीछे नहीं खींच लेना चाहिए। सरकार को सामूहिक संतुश्टि पर भी व्यय करना चाहिए। सरकार द्वारा सामूहिक संतुश्टि पर किया गया व्यय उसी व्यय को माना जा सकता है जिससे व्यक्तियों की सम्मिलित रूप से व्यक्तिगत संतुश्टि में अभिवृध्दि होती हो। साथ ही यह भी आवश्यक है कि सरकार के इस व्यय का लाभ समान रूप से सभी नागरिकों द्वारा उठा पाना सम्भव हो, अत: बेरोजगारी भत्ताा, बुढ़ापा पेंषन, मतदाता वृत्तिा, वोटरशिप या वोटर डेवीडेंट (पेंषन) आदि खर्चों को ही सरकार की सामूहिक संतुष्टि पर किया गया खर्च कहा जा सकता है। सड़क, बिजली, रेल, डाक, यातायात जैसे संसाधनों पर किये गये व्यय का लाभ सभी नागरिक समान रूप से नही उठा सकते। सड़क का लाभ कार वाला व्यक्ति ही अधिक उठाता है, रेल व हवाई यातायात का लाभ सम्पन्न वर्ग ही उठाता है, इसलिए इन चीजों पर किये गये व्यय को सार्वजनिक तो कहा जा सकता है, साझा नही कहा जा सकता है। संक्षेप में, यदि व्यक्ति द्वारा राज्य के खाते में कुछ दिया जाता ह,ै तो राज्य द्वारा व्यक्तियों के खाते में भी कुछ न कुछ देना अनिवार्य है। तभी प्रमाणित होगा कि राज्य अपनी सामूहिक संतुश्टि पर भी कुछ खर्च करता है। ऐसा न करके राज्य आर्थिक अन्याय का एक उपकरण बनता है। वोटरषिप का प्रस्ताव राज्य को अपनी सामूहिक संतुश्टि पर खर्च करने का एक अवसर देता है।
(ix) ''असमानता में कमी करना उपयोगी रहेगा, जिससे एक दिये हुए निष्चित अवधि में व्यक्ति एवं परिवार की आवष्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आय के अच्छे उपयोग की तरफ भी ध्यान दिया जा सके।'' ....डाल्टन
(x) ''पूर्ण रोजगार की अवस्था तभी विद्यमान रह सकती है, जब कोई भी व्यक्ति जो प्रचलित मजदूरी दर पर काम करना चाहता है, बेकार न रहे, यद्यपि 3 से 5 प्रतिषत लोग बेकार रहते ही हैं।'' ....कीन्स
(xi) प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी की व्याख्या -
पूर्ण रोजगार की उक्त अवधारणा में कमी यह है कि वर्तमान मजदूरी की प्रचलित दर को स्वत: उचित और न्यायिक मान लिया गया है। यदि सरकार जनता को वोटरषिप नहीं दे रही हो तो प्रचलित मजदूरी दर पर गरीब लोग रोजगार नहीं कर रहे होते। वे आर्थिक बलात्कार के षिकार हो रहे होते हैं। बलात्कार का यही प्रतिषोध आपराधिक वृत्तिायों को जन्म देता है। यह सब अवचेतन मन में घट रहा होता है। अत: पूर्ण रोजगार की अवस्था तभी मानी जा सकती है जब सरकार ने अपने साथ बलात्कार से मना करने की वोटरशिप जैसी आर्थिक षक्ति सभी नागरिकों को दे रखा हो; फिर भी प्रचलित मजदूरी दर पर जो लोग काम करना चाहते हों, वे बेकार न रहें, तभी पूर्ण रोजगार की अवस्था समझना चाहिये ।
(xii) ''पुनर्वितरण करने वाला वित्ता कम लागत पर अधिक लाभ प्रदान करता है, परन्तु यह बात विकसित देषों की अपेक्षा अल्पविकसित देषों पर अधिक सत्य है।''
...................हैलर
(xiii) प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी की व्याख्या-
''परम्परागत अर्थषास्त्री पुनर्वितरण के लिए प्रगतिषील आय कर, भूमिकर, उत्ताराधिकार कर एवं पूंजी कर लगाकर गरीबों की षिक्षा, चिकित्सा, गृहनिर्माण, सामुदायिक योजना, कुटीर उद्योग एवं श्रम कल्याण में व्यय करने की वकालत करते हैं।'' वस्तुत: इससे पुनर्वितरण संभव ही नहीं हुआ। कारण यह है कि गरीब की षिक्षा के नाम पर खर्च हुआ पैसा अध्यापक के और षिक्षा प्रषासक के हाथ में गया, चिकित्सा का पैसा डाक्टर के हाथ में गया, तथा सामुदायिक योजना, कुटीर उद्योग एवं श्रम कल्याण का पैसा नौकरषाही छोटs व्यापारी एवं दलालों के हाथ में गया। इसलिए पुनर्वितरण के मार्ग में सामाजिक कल्याण प्राप्त करने की लालच एक महंगा सौदा साबित हो रहा है। इस लालच के कारण पैसा अंतिम छोर तक पहुंचने की बजाय बीच से ही वापस लौट आता है। अत: वोटरषिप देना ही पुनर्वितरण का सर्वाधिक प्रभावी साधन है।
6. करारोपण के विशय में अर्थषास्त्रियों के कथन व उनकी व्याख्या-
(i) ''यद्यपि करारोपण के सिध्दांतों की तरह सार्वजनिक व्यय के सिध्दांतों का अभी विकास नहीं हुआ है। तथापि कुछ स्पश्ट एवं मौलिक सिध्दांतों का विवेचन किया जा सकता है, जो कि विधान सभा के सदस्यों और जनसाधारण का उस समय तक प्रदर्षन कर सकते हैं जब तक कि अच्छे सिध्दांतों का विकास नहीं हो जाता।'' ...............व्यूहलर
(ii) प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी की व्याख्या-
''करारोपण से चूंकि अमीर वर्ग प्रभावित होता है इसलिए उसने अपनी सुरक्षा में वैज्ञानिक सिध्दांतों के विकास के लिए वित्ताीय योगदान किया। चूंकि सार्वजनिक व्यय से आम आदमी प्रभावित होता है किन्तु उसके पास वित्ताीय अक्षमता होती है। इसीलिए वह अपने लाभ के लिए की जाने वाली (सार्वजनिक व्यय के सिध्दांत संबंधी) षोधों को वित्ताीय सहारा नहीं दे सका। सार्वजनिक व्यय की तो बात छोड़िए अभी तक तो जन साधारण के साथ न्याय करने वाले षासन तंत्र के सिध्दांतों का भी विकास होना बाकी रह गया है वोटरशिप जैसे साझे धन व साझे व्यय पर ध्यान न जाने के कारण ही अब तक सार्वजनिक व्यय के अच्छे सिध्दांतों का विकास नही हो सका'' ।
(iii) ''सामाजिक कल्याण में वृध्दि देष में वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन बढ़ाकर की जा सकती है, परन्तु अगर यह संभव नहीं हो तो समाज कल्याण की वृध्दि राश्ट्रीय लाभांष के वितरण द्वारा समाज में धन की असमानता को दूर करके भी की जा सकती है। आय वितरण की असमानता दूर करने के लिए गरीबों की आय में वृध्दि तथा राज्य की ओर से अनुदान आवष्यक है।'' ...........पीगू
(iv) ''अनुदान द्वारा वितरण से आय की असमानता को घटाकर सुधारा जा सकता है।''...........डाल्टन
(v) ''सार्वजनिक व्यय की वह पध्दति उत्ताम मानी जाती है जो आय की असमानता को कम करने की षक्तिषाली क्षमता रखती हो।'' ................डाल्टन
(vi) ''जिस प्रकार करारोपण को कर देय क्षमता के आधार पर लिया जाता है, उसी प्रकार सार्वजनिक व्यय भी होना चाहिए, जिससे आर्थिक कल्याण में अधिकतम वृध्दि हो सके।'' ................डाल्टन
(vii) ''निर्धनों में धनी व्यक्तियों की अपेक्षा उपभोग पर अधिक व्यय करने की प्रवृत्तिा पायी जाती है और इसी कारण जब धनी वर्ग से धन लेकर गरीबों पर व्यय किया जाएगा, तो देष में व्यय हुए धन की मात्रा बढ़ेगी, जिससे उत्पादन एवं रोजगार में वृध्दि होगी।'' .................कीन्स
(viii) ''सार्वजनिक व्यय के द्वारा आर्थिक विशमता को तभी समाप्त किया जा सकता है, जब धनी वर्ग पर प्रगतिषील दर से करारोपण किया जाये और इस प्रकार संचित राषि को निर्धन वर्ग के हितार्थ व्यय किया जाये।'' .............प्रो0 जे0 के0 मेहता
(ix) प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी की व्याख्या-
उक्त (iii) से (viii) तक के अर्थषास्त्रियों के विचार पुनर्वितरण का समर्थन करते हैं। वोटरषिप चूंकि पुनर्वितरण का ही एक उपकरण है, अत: यह उक्त अर्थषास्त्रियों द्वारा समर्थन प्राप्त कर पाने में सक्षम है। बस, पारम्परिक कारणों तथा तकनीकी के अल्पविकास की अवस्था के काल खण्ड में पैदा होने के कारण ये सभी अर्थषास्त्री सुविधा के माध्यम से पुनर्वितरण के हिमायती हैं जो उक्त बिन्दु (ज) की व्याख्या से निरर्थक साबित होती है और वोटरषिप पुनर्वितरण्ा के सर्वाधिक बेहतर माध्यम के रूप में सामने आता है।
(x) ''करारोपण से कार्य करने की संभावना कम हो जाती है, जो कार्यक्षमता को भी घटा देती है।'' ................डाल्टन
(xi) प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी की व्याख्या-
''करारोपण से कार्यक्षमता गिरती है, यह बात ज्यादा से ज्यादा अप्रत्यक्ष करारोपण पर सही है। डाल्टन के उक्त वक्तव्य से एक मिथक पैदा हुआ। वह यह कि ''करारोपण से सभी जनता की कार्यक्षमता गिरती है।'' जबकि डाल्टन का भी यह मंतव्य नहीं था। अगर ऐसा होता तो वह प्रगतिषील करारोपण की वकालत न करते। करारोपण जिस पर किया जायेगा, ज्यादा से ज्यादा उतने प्रतिषत लोगों की ही तो कार्यक्षमता गिर सकती है। आयकर यदि पाँच प्रतिषत लोगों पर लगाया जाता है तो यह कहना कहां तक उचित है कि इससे (95 फीसदी) लोगों की कार्यक्षमता गिर जाएगी। यह मिथक वस्तुत: उन लोगों द्वारा दुश्प्रचारित है जो आर्थिक विशमता के पक्षधर तथा अपने हिस्से का परिश्रम दूसराें के कंधे पर स्थानांतरित करना चाहते हैं।'
(xii) ''बहुधा यह कहा जाता है कि करारोपण, विषेशकर धनी वर्ग पर करारोपण बेकारी को बढ़ाता है। परन्तु जो व्यक्ति इस विचार को स्वीकार करते हैं, इस आस्था के प्रतीत होते हैं कि करारोपण द्वारा एकत्रित द्रव्य तो स्टॉक में रख लिया जाता है या फिर समुद्र में फेंक दिया जाता है।'' ................डाल्टन
(xiii) ''राजनीति के एक सिध्दांत के रूप में समानता का अर्थ यह है कि सरकारी व्यय में प्रत्येक व्यक्ति का भाग इस प्रकार निर्धारित किया जाये कि उसे अपने अंषदान से दूसरे व्यक्तियों के अंषदान की तुलना में कम या अधिक असुविधाओं की अनुभूति नहीं हो।'' ..................जे0 एस0 मिल
(xiv) ''करारोपण के प्रत्यक्ष द्रव्य भार का वितरण इस प्रकार होना चाहिए कि प्रत्येक करदाता पर प्रत्यक्ष वास्तविक भार समान हो।'' ................डाल्टन
(xv) प्रमुख याचिकाकर्ता भरत गांधी की व्याख्या-
करारोपण में न्याय की व्याख्या करते हुए मिल एवं डाल्टन जैसे विद्वानों के उक्त वक्तव्यों का गलत अर्थ निकालते हुए यह प्रचारित किया गया है कि-
(i) सबको समान मात्रा में कर देना चाहिए।
(ii) आमदनी के अनुपात में कर देना चाहिए।
(iii) राज्य द्वारा दी गई अपने लिए सेवाओं के अनुपात में कर देना चाहिए।
(iv) जितने कर दान से सम्पन्नता कम न हो, उतना कर देना चाहिए।
उक्त निश्कर्श यह भ्रम फैलाते हैं कि ज्यादा करदान करने वाला -
(i) ज्यादा समाज हितैशी है।
(ii) ज्यादा राज्य हितैशी है।
(iii) ज्यादा परमार्थी है।
(iv) ज्यादा बलिदानी है।
(v) ज्यादा परिश्रमी है।
(vi) ज्यादा उत्पादक है।
एक तरफ यदि वह कर देकर भी हर माह कार बदल सकता है एवं हवाई यात्रा कर सकता है, बेटे को अरबों रूपया विरासत में दे सकता है, तो करदान में उसके द्वारा उठाया गया 'करकश्ट' लगभग षून्य हुआ।
दूसरी तरफ एक गरीब नागरिक प्रत्यक्ष रूप से करदान का कोई श्रेय एवं सम्मान नहीं पाता, फिर भी वह भूखे पेट सोता है, ठंड एवं गर्मी से प्रताड़ित होता है, पाषविक जीवन जीता है। जीवन भर पूरी क्षमता से परिश्रम करता है फिर भी बेटे को हजार-लाख रूपया नहीं छोड़ पाता। अरबों रूपया कर देने वाले की तुलना में इसका कर कश्टांक बहुत ज्यादा है। राज्य द्वारा - 'कर कश्ट' को मान्यता न देकर, गरीब आदमी के एहसान को नकार कर, अमीर आदमी के प्रत्यक्ष कर एहसान में दब कर जो कुछ किया जाता है वह गरीब वर्ग पर करारोपण द्वारा किया गया अन्याय है।अर्थषास्त्री चूंकि करारोपण के लिए करदाता की आय, करदाता को राज्य से लाभ, करदाता के प्रत्यक्ष त्याग की मात्रा की ही गणना किये, 'करकश्ट' की अवहेलना किये इसलिए करारोपण की अब तक की प्रचलित परम्परा पूंजीपति द्वारा षेश जनसाधारण के साथ बलात्कार करती रही।
(xi) ''प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कर एक दूसरे के पूरक हैं और परस्पर एक दूसरे के दोशों को दूर करते हैं।'' ...................प्रो0 डी मार्को
(xvii) ''प्रत्यक्ष और परोक्ष कर दो सुन्दर बहनों के समान हैं। दोनों ही बिल्कुल भाग्यषाली है। तथा दोनों के ही माता-पिता का नाम आवष्यकता एवं आविश्कार हैं। फर्क केवल इतना ही है जितना कि दो बहनों के बीच हो सकता है।''
............ग्रेट स्काटमैन
(xviii) प्रमुख याचिकाकर्ता की व्याख्या -
''.............और वह फर्क यही है कि दोनों के पति अलग अलग हैं। परोक्ष कर की षादी हो चुकी है और प्रत्यक्ष कर अभी कुंआरी है। इसका पिता अपने निजी स्वार्थ और काल्पनिक इज्जत बनाये रखने के लिए अपनी कुंआरी बेटी को घर से बाहर निकलने ही नहीं देता। घर में कैद रहने के कारण प्रत्यक्ष कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्षन नहीं कर पा रही है। चूंकि विष्व सरकार रूपी पति मौजूद ही नहीं है, जो अधिकार पूर्वक उसे अपनी बहू बनाकर ले जाता। वहीं दूसरी तरफ बेटी परोक्ष कर की षादी क्षेत्रीय सरकार के साथ हुई है, उसके पति का स्वभाव ही ऐसा है कि वह ससुराल मोह से ग्रस्त होकर अपने रक्त परिवार से बेवफा हो गया है। दोनों बहनों द्वारा मैके में ही सेवा करने के कारण आम जनता रूपी ससुराल का हाल बेहाल है।
(xix) ''प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कर प्रणालियां पारस्परिक दोशों को कम करके कर व्यवस्था में साम्य की स्थापना करती हैं।'' ............डाल्टन
• भारत की जनसंख्या (2006) -लगभग 107 करोड़
• भारत में मतदाताओं की संख्या -लगभग 67 करोड़
• भारत की सकल घरेलू आय(वार्षिक,संसद में प्रश्नोत्तार) - 14,44,500 करोड़ रूपये
• भारत की प्रति व्यक्ति औसत आय -13,500 रूपये (वार्षिक)
• भारत की प्रति व्यक्ति औसत आय -1125 रूपये (मासिक)
• भारत की प्रति मतदाता औसत आय -21,559 रूपये (वार्षिक)
• भारत की प्रति मतदाता औसत आय -1796 रूपये (मासिक)
• भारत का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (2803 डॉलर वार्षिक,
यू एन डी पी रिपोर्ट - 2005, 48 रूपये प्रति डॉलर की दर से) -1,34,544 रूपये (वार्षिक)
• भारत की प्रति व्यक्ति औसत उत्पादन -11,212 रूपये (मासिक)
• भारत की प्रति मतदाता औसत उत्पादन -21,48,67 रूपये (मासिक)
• 100 रूपये प्रति मतदाता व परादेशीय अंतरिम सरकार को
प्रतिमाह देने के लिए आवश्यक रकम (वार्षिक) -8,04,00 करोड रूपये
• 200ै रूपये प्रति मतदाता व परादेशीय अंतरिम सरकार को
प्रतिमाह देने के लिए आवश्यक रकम (वार्षिक) -1,60,800 करोड़ रूपये
• 500 रूपये प्रति मतदाता व परादेशीय अंतरिम सरकार को
प्रतिमाह देने के लिए आवश्यक रकम (वार्षिक) -4,02,000 करोड रूपये
• 1000 रूपये प्रति मतदाता व परादेशीय अंतरिम सरकार को
प्रतिमाह देने के लिए आवश्यक रकम (वार्षिक) -8,04,000 करोड़ रूपये
• 1750 रूपये प्रति मतदाता व परादेशीय अंतरिम सरकार को
प्रतिमाह देने के लिए आवश्यक रकम (वार्षिक) -14,07,000 करोड़ रूपये
• एक मतदाता को व परादेशीय अंतरिम सरकार को
जी डी पी में उसके औसत हिस्से का 10 प्रतिशत
प्रतिमाह देने के लिए आवश्यक रकम (वार्षिक) -9,01,284 करोड़ रूपये
• एक मतदाता को व परादेशीय अंतरिम सरकार को
जी डी पी में उसके औसत हिस्से का 25 प्रतिशत
प्रतिमाह देने के लिए आवश्यक रकम (वार्षिक) -22,53,612 करोड़ रूपये
• एक मतदाता को व परादेशीय अंतरिम सरकार को
जी डी पी में उसके औसत हिस्से का 50 प्रतिशत
प्रतिमाह देने के लिए आवश्यक रकम (वार्षिक) -45,07,224 करोड़ रूपये
• एक मतदाता को व परादेशीय अंतरिम सरकार को प्रति
व्यक्ति औसत आय में उसके औसत हिस्से का 50
प्रतिशत प्रतिमाह देने के लिए आवश्यक रकम (वार्षिक) -7,21,992 करोड़ रूपये
• भारत में सम्पत्ति कर की व्यवस्था लागू करने पर
संभावित आय (राजस्व, वार्षिक) लगभग -19,00,000 करोड़ रूपये
(विस्तृत गणना के लिए अध्याय-12.4 का संदर्भ ग्रहण करें)
• बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर उनके आर्थिकर् कत्तव्य के
तौर पर कर लगाने से संभावित आय (राजस्व, वार्षिक)े -.............करोड़ रूपये
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भरत गांधी कोरोनरी ग्रुप Naveen Kumar Sharma